यस बैंक डूबने की कगार पर, एसबीआई ने बढ़ाए हाथ

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बैंकिंग तंत्र की नाकामी का दोष पुरानी सरकार पर मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती। निजी क्षेत्र के यस बैंक को डूबने से बचाने के लिए सरकारी क्षेत्र का भारतीय स्टेट बैंक जिस तरह आगे आया उससे यह उम्मीद बंधी है कि उसे बचा लिया जाएगा और लोगों का पैसा सुरक्षित रहेगाइस उम्मीद के बावजूद रिजर्व बैंक और साथ ही सरकार उन सवालों से बच नहीं सकती जिनसे वे दो-चार हैं। पिछले कुछ समय से लगातार ऐसी खबरें आ रही थीं कि यस बैंक की हालत ठीक नहीं। समझना कठिन है कि इतने दिन तक किस बात का इंतजार किया जाता रहा? आखिर उसी समय कठोर कदम क्यों नहीं उठाए गए जिस समय इस बैंक के संस्थापक राणा कपूर के खिलाफ कार्रवाई की गई थी? यदि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय की सतर्कता के बावजूद ऐसी स्थिति बनी कि यस बैंक डूबने की कगार पर पहुंच गया तो इसका मतलब है कि बैंकिंग तंत्र की निगरानी सही तरह नहीं की जा रही है। इसका संकेत उस समय भी मिला था जब पंजाब एंड महाराष्ट्र बैंक में एक बड़ा घोटाला सामने आया था। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि इस घोटाले के तार यस बैंक से जुड़ रहे हैं। रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय की ओर से चाहे जो दावे किए जाएं, यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि बैंकों का नियमन उचित तरीके से नहीं किया जा रहा है। आखिर ऐसा कैसे संभव है कि कोई बैंक अपनी बैलेंस शीट न तैयार करे और फिर भी वह कठोर कार्रवाई से बचा रहे? वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का यह कहना सही हो सकता है कि यस बैंक की खस्ता हालात के लिए संप्रग सरकार जिम्मेदार है, लेकिन उन्हें इस सवाल का जवाब तो देना ही होगा कि आखिर बीते साढ़े पांच साल में मोदी सरकार ने क्या किया? चूंकि मोदी सरकार अपने कार्यकाल के दूसरे दौर में है इसलिए अब वह बैंकिंग तंत्र की नाकामी का दोष पुरानी सरकार पर मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती। इससे इन्कार नहीं कि संप्रग शासन के समय बैंकों से जमकर खिलवाड़ किया गया, लेकिन आखिर क्या कारण है कि मोदी शासन के साढ़े पांच साल के कार्यकाल में बैंकों की हालत सुधर नहीं सकी? यह कहना कठिन है कि बैंकों के विलय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जाने वाला है। यह शुभ संकेत नहीं कि अधिकतर बैंक अभी भी एनपीए की समस्या से जूझ रहे हैं। चूंकि वे समस्या से ग्रस्त हैं इसलिए कर्ज देने में भी हीलाहवाली कर रहे हैं। एक ऐसे समय जब अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश की जा रही है तब बैंकों की वित्तीय सेहत को लेकर संदेह बरकरार रहना बिल्कुल भी ठीक नहीं।